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मैं कौन हूं
मेरा वजूद क्या
जाने किसका रास्ता था वो
मैंने जिसे अपना कहा।
अकेला ही लगा
गुमराह भीड़ संग जब खड़ा
सब मुझे जैसे ही घबराये
और मुझे जैसे ही हर कोई चुप रहा।
हो जैसे तुम
था में भी कभी जैसा
किराबों की मेजबानी में
जिदंगी में हर दिन नए रंग भरता।
फिर एक रोज़
अंधेरा, अनकहा सैलाब लाया
मेरे अपनों से दूर
जमीन का गुनहगार बनाया।
कलम थी जिन हाथों में
उन्हीं से बारूद बनवाया
मेरे जन्नत को
मुझसे ही जमींदोज करवाया।
था मेरा भी कोई
थी मेरी भी कोई पहचान यहां
अब क्या है बाकी बचा
जाने हूं कौन में और मेरा वजूद क्या?
-देवांग
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