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बारामूला नरसंहार : 1947


 

जब कभी भी कश्मीर का ज़िक्र आता है तो कुछ ही शब्द या मुद्दे जैसे की लाइन ऑफ़ कंट्रोल यूनाइटेड नेशन्स द्वारा सीज़फायर समझौता, शिमला एग्रीमेंट या फिर आर्टिकल 370 ही सुनाई पड़ते हैं लेकिन सब भूल जाते हैं 22 अक्टूबर 1947 का वो दर्दनाक दिन जब पाकिस्तान के नापाक़ इरादों ने जम्मू कश्मीर की जनता का भविष्य अंधकारमय और अनिश्चितता के भंवर में हमेशा के लिए झोंक दिया।

22 अक्टूबर ही वो काली तारीख़ थी जिस दिन जम्मू कश्मीर और उसके लोगों की पहचान को तहस नहस करने की नीव पड़ गई थी । उनके शांतिप्रिय और भाईचारे वाले जीवनशैली की तबाही की शुरुआत हो चुकी थी और एक तरह से बाद में कश्मीर घाटी में पनपे आतंकवाद की ज़मीन भी तैयार हो चुकी थी ।


पाकिस्तान ने अपने नापाक़ इरादे 24 अगस्त 1947 को ही ज़ाहिर कर दिए थे जब उन्होंने महाराजा हरि सिंह को यह चेतावनी देते हुए कहा कि समय आ गया है कि महाराजा अपना निर्णय करें और पाकिस्तान में कश्मीर को शामिल करें नहीं तो वे भारी मुसीबत को आमंत्रण देंगे और तभी से पाकिस्तान की नीति ही यह रही है कि वह कश्मीर में हमेशा एक संकट की स्थिति बनाए रखता है ।

ऑपरेशन गुलमर्ग, 21 और 22 अक्टूबर की रात को शुरू किया गया जिसमें दो हज़ार पठान कबाइलियों ने पहले मुज़फ़्फ़राबाद को क़ब्ज़े में ले लिया और उड़ी में जम्मू कश्मीर की छोटी सी सेना की टुकड़ी को हराकर अपने क़ब्ज़े में कर लिया और उसके बाद वे सब बारामुला की ओर कूच करने लगे । अकेले मुज़फ़्फ़राबाद में क़रीब 5 हज़ार लोगों का क़त्ल किया गया, घर लूटे गए, धार्मिक स्थलों पर आग लगा दी गई और कई हज़ार औरतों पर अत्याचार हुए लेकिन जो कुछ बारामुला में हुआ वह इससे भी ज्यादा भयानक था ।


26 अक्टूबर के दिन क़रीब 11 हज़ार बारामूला के लोगों को मौत के घाट उतार दिया गया । कई दिनों तक चले इन अत्याचारों और लूट की घटनाओं में क़रीब 35 हज़ार बारामुला के लोगों की जान गई । इन तीन दिनों में जो कुछ हुआ उसके बाद बारामूला का शहर धुँए के बादलों में घिरा रहा और एक समृद्ध और शानोशौकत वाला एक शहर अब कोई पहचान भी ना पाता था । चाहे वो बारामुला का मंदिर हो, कोई गुरुद्वारा या मस्जिद या फिर कोई चर्च कोई भी धार्मिक स्थल इन आक्रमणकारियों के क़हर से बच नहीं पाया । भारतीय फौजें 27 अक्टूबर को श्रीनगर में पहुँची और इन आक्रमणकारियों को पीछे खदेड़ते हुए 08 नवंबर को बारामूला को आज़ाद कराया ।

पाकिस्तान ने हमेशा से ही यह भ्रम फैलाया है कि आक्रमणकारी क़बीले जिहाद के नाम पर जम्मू कश्मीर पर क़ब्ज़ा करने आए थे और मुस्लिमों को आज़ाद करने आए थे जबकि हक़ीक़त यह है कि इन आक्रमणकारियों ने कश्मीरी मुस्लिमों को भी नहीं बख़्शा, ये जहाँ भी गए वहाँ लूट तबाही और बरबादी का मंजर देखने को मिला । पाकिस्तानी फौजों के अधिकारी भी इन आक्रमणकारियों के साथ भेस बदलकर मिले हुऐ थे । पाकिस्तान फ़ौज के मेजर ख़ुर्शीद अनवर ने ख़ुद बारामुला में अपनी निगरानी में लूट, हत्या और बलात्कार की वारदातों को अंजाम दिया ।


इन आक्रमणकारी कबीलों और पाकिस्तानी फ़ौज की घुसपैठ ने जो गहरे घाव जम्मू कश्मीर की अवाम के भविष्य पर छोड़े उससे आज के लोग अभी तक जूझ रहे हैं । यह आक्रमण उस कश्मीरियत पर पहला आक्रमण था जिस कश्मीरियत को कई सदियों से एक धार्मिक भाईचारे की पहचान मिली हुई थी । इस आक्रमण ने एक शांतिप्रिय कश्मीरी समाज को तहस नहस कर दिया और यहीं से भारत पाकिस्तान के ख़राब रिश्तों की बुनियाद भी पड़ गई।


कबीलों और दूसरे तरह के आक्रमणकारियों को अपनी फौजों के साथ मिलाकर दूसरे राष्ट्रों में घुसपैठ करना, आक्रमण करना, यह पाकिस्तान की नीति बन गई जो हमें बाद में कश्मीर में 1990 के दशक में आतंकवाद के रूप में दुबारा नज़र आयी, फिर कारगिल में और अब अफ़ग़ानिस्तान में नज़र आ रही है ।


जो लोग पाकिस्तान के इस दुष्प्रचार में फँस कर यह समझते हैं कि पाकिस्तान कश्मीरी मुस्लिमों का भला चाहता है उनको यह जान लेना चाहिए कि इन आक्रमणकारियों ने पाकिस्तानी फौजों के साथ मिलकर किसी भी कश्मीरी को नहीं बख़्शा चाहे वह कश्मीरी मुसलमान, कश्मीरी सिख, या कश्मीरी हिन्दू हो ।


22 अक्टूबर 1947 का दिन जम्मू कश्मीर के इतिहास का सबसे काला दिन है और हमें इस बात को कभी नहीं भूलना चाहिए । अब समय है कि जम्मू कश्मीर के लोगों को यह समझ जाना चाहिए कि पाकिस्तान आज भी अपनी उसी बुरी नीतियों पर क़ायम है और जो उसने 1947 में किया आज भी उन्हीं तरीक़ों से अपने नापाक़ इरादों को अंजाम देने में लगा है ।



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